हजरत मौलाना मोहम्मद यूसुफ रह० की तरफ से 1950 में भेजी जाने वाली जमाअत की कारगुजारी
रवानगी
अगस्त 1947 हिन्दुस्तान की तक्सीम के बाद बहुत से मुसलमान पूर्वी पंजाब की रियासतों में मुरतिद हो गए थे।
जब हज़रत मुहम्मद यूसुफ़ रह० को इन हालात का पता चला तो सख्त सदमा हुआ तो आप मार्च 1950 में तब्लीगी मर्कज़ बस्ती हजरत निजामुद्दीन में लगातार आठ दिन तक इमी मौजू पर बयान फरमाते रहे और तर्गीब देते रहे कि मुझे चिल्ला या तीन चिल्ला नहीं चाहिए बल्कि ऐसे आदमियों की ज़रूरत है जो या तो मर जाएं (यानी अल्लाह के रास्ते में अपनी जान दे दें) या पूर्वी पंजाब के मुर्तदों को दोबारा इस्लाम में ले आएं अब इस पर जितना भी वक्त लग जावे लगे, वक्त की कैद नहीं।
चुनांचे इस मुतालबे पर 22 आदमियों ने अपने नाम पेश किये और आपका मुतालबा मंजूर कर लिया और वादा किया कि इन्शाअल्लाह तआला हम आपके फ़रमान के मुताबिक अपनी जान दे देगे या पूर्वी पंजाब के मुरतिदों को मेहनत करके दोबारा इस्लाम मैं ले आएंगे चुनांचे 22 आदमियों की दो जमानत ग्यारह - ग्यारह आदमियों की तशकील की गती एक जमाअत के अमीर मोहम्मद इकबाल साहब और दूसरी जमाअत के अमीर हाजी कमालुदीन सहारनपुर वाले को बनाया गया मौलाना मोहम्मद यूसुफ़ रह० ने नगे पांव मस्जिद से बाहर निकल कर खूब रो-रो कर की दोनों जमाअतों को अल्लाह के सुपुर्द करके देर तक उनको देखते रहे और दुआ फ़रमाते रहे और जमाअतों को रुख्सत करते वक्त यह फ़रमाया था कि जमाअतें पानीपत पहुंच कर मौलाना बकाउल्लाह साहब के मश्विरे से काम शुरू करें। द
खौफ़ की वजह से बे-इल्तफ़ाती
जब यह दोनों जमाअतें पानीपत मौलाना बक़ाउल्लाह साहब के पास पहुंची तो मौलांना जमाअतों को देख कर कहने लगे कि तुम यहां कैसे आ गये, तुम हमको मरवाओगे, जमाअत के अहबाब को बुरा-भला कहा और मस्जिद के अन्दर जमाअतों को ठहरने न दिया और बाहर निकाल दिया। जमाअत वाले मजबूरी की हालत में शहर से बाहर निकल गये और एक वीरान मस्जिद में जो इमाम साहब की मस्जिद के नाम से मशहूर थी उसमें ठहर गये ।
इन दोनों जमाअतों ने मश्विरा करके प्रोग्राम बनाया कि यहां से दोनों जमाअतें अलग-अगल रुखों पर एक-एक हप्ता काम करके चिल्लापुर के मुकाम पर इकट्ठी हो जाएं चुनांचे प्रोग्राम के मुताबिक़ यह जमाअतों काम करती हुई ठीक वक्त पर चिल्लापुर पहुंच गई ।
इलाके की सूरतेहाल
यहां पर पांच मस्जिदें थीं और बारह घर मुसलमानों के थे जो सब के सब मुरतिद हो चुके थे उन्होंने एक मस्जिद के मिम्बर को तोड़ कर उसकी जगह बुत बना रखा था जिसकी यह लोग पूजा किया करते थे। हमने इन से बात की और तर्गीब देकर इनको दोबारा इस्लाम में दाखिल होने की दावत दी तो इनमें से एक आदमी बतौर रहबर के साथ हो गया और हमको दूसरे देहातों में ले गया । एक गांव में दस या बारह आदमी छुप कर नमाज़ पढ़ते थे बाकी सब के सब मुरतिद हो चुके थे हम इनको दोबारा छुप कर इस्लाम में आने की तर्गीब देते रहे। इनमें दो इमाम मस्जिद भी थे, जिन्होंने दाढ़ियां मुड़वा कर सर पर चोटी रखी हुई थी।
पहली आज़माइश
हमने इस इलाके में एक हफ़्ता काम किया और यहां से हमारी जमाअतें जींद रियासत में चल गयीं जींद में दस मस्जिदें थीं और मुसलमानों की काफ़ी तादाद थी इनमें अक्सर मुरतिद हो गये थे और बाक़ी छुप कर नमाज पढ़ते थे। इनमें से पांच साथी हमारे साथ चले दिये इस जगह पर चार दिन काम किया, बहुत से अहबाब ने अजान देकर नमाज अदा करनी शुरू कर दी, इस इलाके में हमारी शोहरत हो गई कि इस किस्म के लोग आये हुए हैं जो कि मुरतिदों को दोबारा इस्लाम में दाखिल कर रहे हैं।
पुलिस को हमारी रिपोर्ट कर दी गई जिस पर पुलिस के बीस सिपाही ट्रक में सवार होकर आ गये और जिस मस्जिद में हमारी जमाअत ठहरी हुई थी उसमें दाखिल हो गये और जमाअत के साथियों को लाठियो से और बंदूक की बटों से मारना शुरू कर दिया एक-एक आदमी के ऊपर तीन-तीन चार-चार सिपाही चढ़ जाते, मारते और गालियां देते जिससे हमारे तमाम साथियों का पाखाना और पेशाब तक निकल गया, आखिरकार हम सब बेहोश हो गये। इन जालिमों ने हम सब को बेहोशी की हालत में ही उठा-उठा कर ट्रक में डाल दिया और अम्बाला की जेल में ले गये और जेल के अन्दर एक तंग और तारीक कोठरी में डाल दिया और सुबह हम सब को कोठरी से निकाला और पूरी जेल का पाखाना हम से उठवाया इसी हालत में हमें तीन दिन गुज़र गए न हमें खाने को दिया न पानी पीने को दिया।
पहली गैबी मदद
चौथे दिन हम तालीम कर रहे थे कि एक अफ़सर आया उसने हमको देखा तो पूछा कि तुम यह क्या पढ़ रहे हो, हमने उसको अपनी तालीम का मक्सद समझाया मगर उसकी समझ में न आया, उसने हमारे पास से तालीमी निसाब की किताब ले ली, थोड़ी देर पढ़ता रहा फिर कहने लगा कि जर मैं इंकलाब से पहले मुल्तान में था तो हमारे बच्चों को कोई तकलीफ़ हो जाती थी तो हम इनको मुसलमानों के पास ले जाते थे जो तुम्हारी ही तरह के थे, इनको तब्लीगी जमाअत वाले कहते थे, तुम भी उन्हीं में से मालूम होते हो, ये लोग अल्लाह के कलाम को पढ़ कर दम कर दिया करते थे तो हमारे बच्चों को आराम आ जाता था वे बहुत अच्छे लोग थे, मुझे उनसे बड़ी मुहब्बत हो गई थी। अगर तुम्हें किसी किस्म की कोई तक्लीफ़ हो तो मैं तुम्हारी मदद करने को तैयार हूं, हमने कहा कि हमें तंग कोठरी में बन्द किया हुआ है और हम से कैदियों का पाखाना उठवाया जाता है, जिसे हमारे कपड़े नापाक हो जाते हैं और तीन दिन से हमें खाना भी नहीं खाया, इसप पर उसने जेल के बड़े अफसरों को बुलवाया और हुक्म दिया कि फ़ौरन इनको बड़ा कमरा दिया जाए और पाखाना वगैरह बिल्कुल न उठवाया जाए और इनका राशन जारी किया जाए, ये हुक्म देकर और हम सबसे मुसाफ़ह करके वह चला गया, अल्लाह पाक ने हमारी गैवी मदद फ़रमाई। इसके बाद हमें इस जेल में काफ़ी आसानी हो गई । हम अज़ान देकर नमाज़ पढ़ने लग गये। तलाश करने पर मालूम हुआ कि इस जेल में 240 मुसलमान कैदी और भी हैं हमने इनको दावत दी तो इनमें से तक़रीबन अस्सी कैदी हमारे साथ नमाज पढ़ने लग गये और तालीम से भी अक्सर इनमें से हमारे साथ शामिल होने लगे। इसी तरह इस जेल के अन्दर हमने अठारह दिन गुज़ारे इसके बाद हमें रिहा कर दिया गया।
नया हौसला
जेल से रिहा होकर हम रियासत बूढ़िया में चले गये । इस जगह के हालात भी बहुत खराब थे जिस की वजह से हमारे ग्यारह साथी मय दोनों जमाअतों के अमीर साहबान छुप कर निकल गये बाकी ग्यारह साथी रह गये जब हमें पता चला कि ग्यारह साथी जा चुके है तो बाक़ी साथियों को बड़ा दुख हुआ मगर अल्लाह ने हमारी मदद की और वह वादा जो कि हजरत रह० से किया था याद दिलाया जिसकी वजह से तमाम साथियों के हौसले बुलन्द हो गये और काम करने का अहद किया। यह ग्यारह साथी जो रह गये थे इनके नाम यह थे। १. मुहम्मद फ़ैजुद्दीन बिहारी २., हाफ़िज गुलाम रसूल पंजाबी ३. मुहम्मद सुलेमान ४. रुस्तम खां ५. अलिफ़ खां ६. वली खां ७. रोशन खां ८. मुहम्मद इसहाक ९. यूसुफ़ खा १० करीम खां ११ कुंवर खां
इस जगह मौलाना अब्दुल करीम साहब थे। हम सब साथी मौलाना के पास गये और इनकी खिदमत में अर्ज किया कि आप हमारी कारगुजारी अपनी मारफ़त निजामुद्दीन तब्लीगी मर्कज़ में हज़रत मुहम्मद यूसुफ़ रह० की खिदमत में रवाना फ़रमाद, जिसमें हमने हज़रत जी की खिदमत में यह भी अर्ज किया था कि अब हम अमीर किसको बनायें और आइन्दा काम कैसे करें । इस पर हज़रत जी ने जवाब में फ़रमाया कि अमीर सुलेमान मेवाती को बना दिया जाये और मुकामी लोगों को ज्यादा तादाद में साथ न रखा जाये और क़ियाम हर हाल में मस्जिद में किया जाये चाहे मस्जिद आबाद हो या गैर आबाद और जमाअत को आगे बढ़ाया जाये।
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